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यू॒प॒व्र॒स्काऽउ॒त ये यू॑पवा॒हाश्च॒षालं॒ येऽअ॑श्वयू॒पाय॒ तक्ष॑ति। ये चार्व॑ते॒ पच॑नꣳ स॒म्भर॑न्त्यु॒तो तेषा॑म॒भिगू॑र्त्तिर्नऽइन्वतु ॥२९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यू॒प॒व्र॒स्का ति॑ यूपऽव्र॒स्काः। उ॒त। ये। यू॒प॒वा॒हा इति॑ यूपऽवा॒हाः। च॒षाल॑म्। ये। अ॒श्व॒यू॒पायेति॑ अश्वऽयू॒पाय॑। तक्ष॑ति। ये। च॒। अर्व॑ते। पच॑नम्। स॒म्भर॒न्तीति॑ स॒म्ऽभर॑न्ति। उ॒तोऽइत्यु॒तो। तेषा॑म्। अ॒भिगू॑र्त्ति॒रित्य॒भिऽगू॑र्त्तिः। नः॒। इ॒न्व॒तु॒ ॥२९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:29


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (यूपव्रस्काः) यज्ञखंभा के छेदने-बनाने (उत) और (ये) जो (यूपवाहाः) यज्ञस्तम्भ को पहुँचानेवाले (अश्वयूपाय) घोड़ा के बाँधने के लिये (चषालम्) खंभा के खण्ड को (तक्षति) काटते-छाँटते (ये, च) और जो (अर्वते) घोड़ा के लिए (पचनम्) जिस में पाक किया जाये, उस काम को (सम्भरन्ति) अच्छे प्रकार धारण करते वा पुष्ट करते (उतो) और जो उत्तम यत्न करते हैं (तेषाम्) उनका (अभिगूर्त्तिः) सब प्रकार से उद्यम (नः) हम लोगों को (इन्वतु) व्याप्त और प्राप्त होवे ॥२९ ॥
भावार्थभाषाः - जो कारुक शिल्पीजन घोड़ा के बाँधने आदि काम के काठों से विशेष काम बनाते और जो वैद्य घोड़े आदि पशुओं की ओषधि और उन की सजावट की सामग्रियों को इकट्ठा करते हैं, वे सदा उद्यम करते हुए हम लोगों को प्राप्त होवें ॥२९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

(यूपव्रस्काः) यूपस्य स्तम्भस्य छेदकाः (उत) अपि (ये) (यूपवाहाः) ये यूपं वहन्ति ते (चषालम्) यूपावयवम् (ये) (अश्वयूपाय) अश्वस्य बन्धनार्थाय स्तम्भाय (तक्षति) तक्षन्ति तनूकुर्वन्ति। अत्र वचनव्यत्ययेनैकवचनम् (ये) (च) (अर्वते) अश्वाय (पचनम्) पाकसाधनम् (सम्भरन्ति) सम्यग्धरन्ति पुष्णन्ति वा (उतो) अपि (तेषाम्) (अभिगूर्त्तिः) अभ्युद्यमः (नः) अस्मान् (इन्वतु) व्याप्नोतु प्राप्नोतु ॥२९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - ये यूपव्रस्का उतापि ये यूपवाहा अश्वयूपाय चषालं तक्षति, ये चार्वते पचनं सम्भरन्ति, उतो ये प्रयतन्ते तेषामभिगूर्त्तिर्न इन्वतु ॥२९ ॥
भावार्थभाषाः - ये शिल्पिनोऽश्वबन्धनादीनि काष्ठविशेषजानि वस्तूनि निर्मिमते, ये च वैद्या अश्वादीनामौषधानि सम्भारांश्च संगृह्णन्ति, ते सदोद्यमिनः सन्तोऽस्मान् प्राप्नुवन्तु ॥२६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे कारागीर घोड्यांना बांधण्याच्या जीनसाठी लाकडाचे काम करतात व जे वैद्य लोक घोडे इत्यादी पशूंचे औषध व त्यांच्या सजावटीचे सामान जवळ बाळगतात असे उद्योगी लोक सदैव आपल्याजवळ असावेत.